Thursday, March 5, 2009

उत्तराखंड का बैकुन्ठ चतुर्दशी का मेला

उत्तराखंड की संस्कृति मेलों में समाहित है। उत्तराखंड में इन्हें ’’कौथीक’’ या ’’कौतुक’’ कहा जाता है। लगभग सभी मेले धर्म, संस्कृति और कला से संबंधित होते हैं। कुमांऊमें 50 से भी अधिक मेले नियोजित होते हैं जिनमें गीत और नृत्य की प्रचुरता होती है, साथ ही धार्मिक निष्ठा का भी समावेश होता है। उत्तराखंडमें सर्वत्र मंदिर दिखाई देते हैं। मंदिरों से जुड़ी अनेक धार्मिक कथाएं लोक में सुनने को मिलती हैं। बैकुन्ठ चतुर्दशी ऐसा की मेला है जो लोक कथा से जुड़ा है।

बैकुन्ठ चतुर्दशी का मेला मार्गशीर्ष और कार्तिक मास में आयोजित होता हैै। श्रीनगर में स्थित कमलेश्वर मंदिर में यह मेला लगता है। जनश्रुति है कि निः सन्तान पति-पत्नी पूरी रात प्रज्वलित दीपक अपने हाथ पर रखने हैं तो उन्हें पुत्र प्राप्ति होती है। पत्नी शाम को पुजादि करवाकर प्रज्वलित दीपक हाथ पर रखकर खड़ी हो जाती है। इस दृष्य को देखने के लिए बहुत लोग मंदिर में एकत्रित होते है। यदि पत्नी कष्ट अनुभव करे तो उसका पति दीपक उठा सकता है। सूर्यादय से पूर्व ही दीपक जल में विसर्जित किया जाता है। लोक विश्वासानुसार इस विधि से पुत्र प्राप्ति अवश्य होती है। कभी-कभी कुछ स्त्रियां पूरी रात दीपक हाथ में उठाने से सुबह मूर्छित हो जाती हैं। जनश्रुति के अनुसार उन्हें सुफल की प्राप्ति नहीं होने पाती है।

इसके अलावा इस मेले से पूर्व स्त्रियां 365 बत्तियां प्रत्येक पारिवारिक जन के नाम पर बनाकर रख देती है। इस दिन गंगा स्नान का भी महत्व होता है। इसलिए स्त्रियां सुबह स्नान करके दीपक चढ़ाने जाती हैं। घी में लपेटी गई बत्तियां केले के पत्तों पर रखकर जलाई जाती है। लोक अनुसार इस दिन इन बत्तियों को जलाने से 365 दिनों का दुःख समाप्त हो जाता है। इस प्रकार प्रतिवर्श उत्तराखंड में जाते हैं और व्याकुलता से इसकी प्रतीक्षा भी करते हैं।

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